

योगदर्शन के अनुसार चित्त की पांच भूमियां वैदिक साहित्य में षड्दर्शनों का विशेष स्थान है! इन षड्दर्शनों में योगदर्शन को 'योग' या 'मोक्ष' से सम्बन्धित दर्शन माना गया है! योग का अर्थ है जोड़ना अथवा मिलन! अर्थात् आत्मा और परमात्मा का मिलन या अपवर्ग मोक्ष की प्राप्ति! महर्षि पतंजलि "योगदर्शन" के प्रणेता माने जाते हैं और योगदर्शन को पातंजल योगदर्शन भी कहा जाता है! महर्षि व्यास योगदर्शन के व्याख्याकार है! महर्षि व्यास ने योगदर्शन के सूत्रों की आसान भाषा में व्याख्या की है! भारत और विदेशों में आमजन के मध्य योग अत्यंत लोकप्रिय है परन्तु खेद का विषय है कि योग के मूल ग्रंथ योगदर्शन से आमजन प्राय: अनभिज्ञ ही हैं! नवयुवकों में पावर योगा अत्यंत लोकप्रिय है, परंतु वह हठयोग का ही एक रुप है और उसमें भी आध्यात्मिक पहलु का सर्वदा अभाव ही रहता है! शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक लाभ के लिए सम्पूर्ण वैदिक साहित्य और योगदर्शन का अभ्यास अवश्य करना चाहिए ! चित्त की पांच भूमियां अथवा अवस्था ! चित्त की पांच भूमियों से अलग चित्त त्रिगुण स्वभाव का है अर्थात् जब चित्त में सत्वगुण प्रधान होता है तो प्रकाशील, रजोगुण प्रधान होने से क्रियाशील और तमोगुण प्रधान होने से जड़ता अर्थात् मुर्खता, अज्ञानता, आलस्य, काम, क्रोध से युक्त होता है! 1. क्षिप्त= चित्त की क्षिप्त अवस्था में चित्त की दशा अत्यंत चंचल होती है! इस दशा में तम अर्थात् आलस्य, अंधकार प्रधान होता है, रजोगुण और सत्वगुण गौण होते हैं! इस अवस्था में चित्त किसी एक विषय पर नहीं ठहरता बार बार बदलता रहता है जैसे बंदर के हाथ में कुछ खाने को दो फिर उसी समय दुसरी वस्तु खाने को दो तो बंदर पहले वाली वस्तु को फेंक देता है और वह लगातार ऐसा करता ही जाता है क्योंकि उसका चित्त चंचल है और एक वस्तु या विषय पर टिक नहीं रहा, दुसरा विषय सामने आते ही पहले वाले विषय को अधुरा छोड़ देता है! चित्त की यह अवस्था काम, क्रोध, लोभ और मोह के सानिध्य से होती है! 2. मूढ= चित्त की मूढ़ अवस्था अर्थात् निद्रा, आलस्य, मन-शरीर में भारीपन! इस अवस्था में रजोगुण प्रधान व तम और सत्वगुण गौण रहते हैं! चित्त की मूढावस्था राग-द्वेष के कारण होती है, जिसमें मनुष्य का झुकाव ज्ञान- अज्ञान, धर्म-अधर्म, वैराग्य-अवैराग्य, ऐश्वर्य-अनैश्वर्य में होती है! यह सामान्य मनुष्य के चिन्ह है! जब सत्वगुण अधिक होता है तो मनुष्य की प्रवृत्ति धर्म की ओर झुकी रहती है और तामसिक वृत्ति मनुष्य को अधर्म -अज्ञान की ओर धकेलती है! 3. विक्षिप्त= चित्त की विक्षिप्त अवस्था में सत्वगुण प्रभावशाली रहता है तथा तम और रज दबे रहते हैं! इस अवस्था में चित्त कभी स्थिर हो जाता है कभी अस्थिर चंचल! इस अवस्था में साधक का ध्यान ईश्वर में कुछ समय के लिए लग जाता है, परंतु बाह्य या आंतरिक कारणों से चित्त की एकाग्रता भंग हो जाती है! इसी को विक्षिप्ता अवस्था कहते हैं! जैसे शांत वातावरण में दीपक की लौ एकटक उपर की ओर दीप्ति मान होती रहती है, परंतु बाह्य वातावरण से वायु के झोंके से टेढ़ी- मेरी या बुझ जाती है! ऐसे ही चित्त की विक्षिप्त दशा को समझना चाहिए! 4. एकाग्रावस्था= जब साधक यम -नियम (अष्टांग योग) के नियमों का दृढ़ता से पालन करता है, विवेक वैराग्य को प्राप्त करता है तो चित्त की उस अवस्था को एकाग्रावस्था कहते हैं! इस अवस्था में सत्वगुण प्रधान होता है तथा तम और रज नाममात्र होते हैं! चित्त की एकाग्र दशा में समाधि होती है! वह वस्तु जैसी है उसको वैसे ही प्रदर्शित कर देती है! इस अवस्था में अविद्या आदि पंच क्लैश (अविद्या, अस्मिता, राग, द्वैष, अभिनिवेश) क्षीण हो जाते हैं! कर्म के बंधन ढीले हो जाते है और निरोध रुप चित्त अन्तिम भूमि की और अग्रसर होता है! यह एकाग्र समाधि समप्रज्ञात समाधि होती है और यह चार प्रकार की होती है 1. वितर्कानुगत 2. विचारानुसार 3. आनन्दानुगत 4. अस्मितानुगत! 5. निरोध अवस्था= चित्त की निरोध अवस्था में चित्त सत्व, रज और तम से भी मुक्त हो जाता है! इस अवस्था में चित्त की सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है! इस अवस्था में मोक्ष की प्राप्ति होती है! यह निर्बीज नाम की समाधि होती है अर्थात् आवागमन के चक्र से मुक्ति, जन्म जन्मातरों के कर्म और वासनाएं दग्ध हो जाती है! यह अवस्था असम्प्रज्ञात योग से जानी जाती है! पवन उपाध्याय! ( योग परास्नातक, UGC NET in Yoga) संदर्भ ग्रंथ - पातंजल योगदर्शन भाष्यम (आर्ष साहित्य प्रचार टृस्ट) वेदो में योग विद्या (स्वामी दिव्यानंद सरस्वती)
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